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महाभारत युद्ध में संजय ने अपने दिव्य दृष्टि से सबको हैरान कर दिया था, ये उसकी जिंदगी की अद्भुत कहानी

बहुत कम लोग संजय के बारे में जानते हैं. गीता की शुरुआत संजय और धृतराष्ट्र के संवाद से होती है. संजय हस्तीनापुर में बैठे हुए ही कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाता है.
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Mahabharata

बहुत कम लोग संजय के बारे में जानते हैं. गीता की शुरुआत संजय और धृतराष्ट्र के संवाद से होती है. संजय हस्तीनापुर में बैठे हुए ही कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाता है. हस्तीनापुर (मेरठ उत्तर प्रदेश में) और कुरुक्षेत्र (हरियाणा में) लगभग 145 किलोमीटर का फासला है. 18 दिन तक चलने वाले युद्ध की हर घटना का संजय वर्णन करता है.

संजय प्रारंभ से अंत तक धृतराष्ट्र के साथ ही रहते हैं. महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भी वे उनके मार्गदर्शन की भांति कार्य करते रहे। यह बहुत ही आश्चर्य वाली बात है कि एक ओर जहां धृतराष्ट्र देख सकने में अक्षम थे वहीं संजय के पास दिव्य दृष्टि थी. आज के दृष्टिकोण से वे टेलीपैथिक विद्या में पारंगत थे.

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संजय के पिता बुनकर थे, इसलिए उन्हें सूत पुत्र माना जाता था. उनके पिता का नाम गावल्यगण था. उन्होंने महर्षि वेदव्यास से दीक्षा लेकर ब्राह्मणत्व ग्रहण किया था। अर्थात वे सूत से ब्राह्मण बन गए थे. वेदादि विद्याओं का अध्ययन करके वे धृतराष्ट्र की राजसभा के सम्मानित मंत्री भी बन गए थे. कहते हैं कि गीता का उपदेश दो लोगों ने सुना, एक अर्जुन और दूसरा संजय। यहीं नहीं,  देवताओं के लिए दुर्लभ विश्वरूप तथा चतुर्भुज रूप का दर्शन भी सिर्फ इन दो लोगों ने ही किया था.

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संजय अपनी स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध थे। वे धृतराष्ट्र को सही सलाह देते रहते थे. एक ओर वे जहां शकुनि की कुटिलता के बारे में सजग करते थे तो दूसरी ओर वे दुर्योधन द्वारा पाण्डवों के साथ किए जाने वाले असहिष्णु व्यवहार के प्रति भी धृतराष्ट्र को अवगत कराकर चेताते रहते थे. वे धृतराष्ट्र के संदेशवाहक भी थे.

संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त थी, अत: वे युद्धक्षेत्र का समस्त दृश्य महल में बैठे ही देख सकते थे. नेत्रहीन धृतराष्ट्र ने महाभारत-युद्ध का प्रत्येक अंश उनकी वाणी से सुना. धृतराष्ट्र को युद्ध का सजीव वर्णन सुनाने के लिए ही व्यास मुनि ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी. महाभारत युद्ध के पश्चात अनेक वर्षों तक संजय युधिष्ठिर के राज्य में रहे. इसके पश्चात धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती के साथ उन्होंने भी संन्यास ले लिया था. बाद में धृतराष्ट्र की मृत्यु के बाद वे हिमालय चले गए, जहां से वे फिर कभी नहीं लौटे.